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पूज्य महाराज श्री के सानिध्य में 14 से 20 फरवरी 2018 तक हुड्डा ग्राउंड न. 1, करनाल (हरियाणा) में आयोजित श्रीमद भागवत कथा के सप्तम दिवस पर महाराज श्री ने कंस वध, उद्धव चरित्र एवं भगवान श्री कृष्ण और रुक्मणि जी के विवाह का सुन्दर वर्णन सभी भक्तों को सुनाया।







" अपने कर्मो को हमेशा सही रखना तो ईश्वर सदैव आपका हाथ थामे रखेगा।"

राजा परीक्षित को की भागवत का ज्ञान सुनने के वो स्वयं अपनी मृत्यु का इंतज़ार कर रहे है। उनको अब काल का यानि तक्षक का कोई भय नहीं रहा। जिसने जन्म लिया है वो मृत्यु को प्राप्त होगा ही। प्रत्येक जीव के जन्म से पहले ही उसकी मृत्यु का समय , स्थान और कारन ये निश्चित हो जाता है।
कथा के क्रम को आगे बढ़ाया और बताया की रुक्मणि और भगवान् श्याम सुन्दर का विवाह हुआ और उनका प्रथम पुत्र को जन्म होते ही एक संभरासुर नामक राक्षस उठा ले गया क्योकि उसको पता था की श्री कृष्ण का प्रथम पुत्र उसकी मृत्यु का कारन होगा। तो वो प्रद्युम्न समुद्र में फेक देता है वहां एक मछली उसको निगल जाती है और वो फिर संभरासुर की रसोई में ही पहुँच जाती है और उसका पालन पोषण काम देव की पत्नी ने स्वयं माँ की तरह कर उसको बड़ा किया। प्रद्युम्न कामदेव का जी जन्म है और ये पहली पत्नी थी जिसने अपने पति को माँ की तरह पला। जब प्रद्युम्न बड़े हुए तो संभरासुर का वध कर के द्वारिका को पत्नी सहित प्रस्थान किया।
महाराज श्री ने आगे कहा कि पुराणों की कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तिथि को नरकासुर नाम के असुर का वध किया। नरकासुर ने 16 हज़ार 100 कन्याओं को बंदी बना रखा था। नरकासुर का वध करके श्री कृष्ण ने कन्याओं को बंधन मुक्त करवाया। इन कन्याओं ने श्री कृष्ण से कहा की समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा अतः आप ही कोई उपाय करें। समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा के सहयोग से श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया। इस कारण भगवान ने 16000 रूप बनाकर सबके साथ एक मुहूर्त में एक साथ विवाह किया था। कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने इतने विवाह किये। भगवान ने कामनावश विवाह नहीं किया था, करुणावश किया था। भगवान कहते हैं जिसको कोई नहीं अपनाता अगर वो मेरी शरण में आये तो मैं उसे अपना लेता हूँ।
भगवान कृष्ण मित्र और शत्रु के लिए समान भावना रखते है इसके पीछे भी मोरपंख का उद्दारण देखकर हम यह कह सकते है। कृष्ण के भाई थे शेषनाग के अवतार बलराम और नागो के दुश्मन होते है मोर। अत: मोरपंख सर पर लगाके कृष्ण का यह सभी को सन्देश है की वो सबके लिए समभाव रखते है। मोरपंख में सभी रंग है गहरे भी और हलके भी। कृष्णा अपने भक्तो को ऐसे रंगों को देखकर यही सन्देश देते है जीवन ही इस तरह सभी रंगों से भरा हुआ है कभी चमकीले रंग तो कभी हलके रंग, कभी सुखी जीवन तो कभी दुखी जीवन।
इस मायावी दुनिया में देखा गया है कि जो प्यारा लगता है, हमें उसके अवगुण नहीं दिखाई देते और जिसे नापसंद करते हैं, हम उसके गुण नहीं देखते। नज़रिये के अनुसार ही नज़ारे दिखते हैं। लेकिन ध्यान रखना धर्म के विरुद्ध कभी मत जाना। बुराइयां खुद के लिए गड्ढा खोदती हैं। लेकिन जो सच प्रभु को प्रसन्न करना चाहते हो तो हमेशा दूसरों को खुशियां देना सीखो तुम्हें अपने आप खुशियाँ मिलती जाएँगी। अगर आपको कोई गलत बोले तो भी बुरा न मानो क्योकि वो कही न कही हमारे ही कर्म ही काट रहा है। क्योकि संसार में आने से पहले ही हमारा समय , स्थान और कारन निश्चित कर देता है इसलिए अपने कर्मो को हमेशा सही रखना तो ईश्वर सदैव आपका हाथ थामे रखेगा।
महाराज श्री ने कथा क्रम को आगे बढ़ाते हुए बताया कि बलराम जी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन श्रीकृष्ण जी पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे हुए थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान श्रीकृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि श्रीकृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीकृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा। बहेलिए के जाने के बाद वहां श्रीकृष्ण का सारथी दारुक पहुंच गया। दारुक को देखकर श्रीकृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दो, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएं। यह संदेश लेकर दारुक वहां से चला गया। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए। श्रीमद भागवत के अनुसार जब श्रीकृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुंची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलरामजी की पत्नियां, श्रीकृष्ण की पटरानियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए। महाराज श्री ने आगे कहा कि यहां पर कुछ मूर्ख लोग ये कहते है कि ऐसे कैसे भगवान थे जो एक तीर से मर गए, उनको ये समझना चाहिए कि भगवान धर्म की सत्यापन करने के लिए धरती पर आए थे और वे स्वयं द्वारा बनाये गए कालचक्र को कैसे तोड़ सकते थे। इसीलिए ये उनके द्वारा रचित लीला थी।
|| राधे राधे बोलना पड़ेगा ||

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