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विश्व शांति सेवा मिशन कनाडा के तत्वावधान में पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज के सानिध्य में 02 से 08 अगस्त 2019 तक Sanatan Dharma Temple, 6219 Monk (Corner Street is Jolicoeur), Montreal, Quebec H4E3H8, Canada में श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है।

विश्व शांति सेवा मिशन कनाडा के तत्वावधान में पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज के सानिध्य में 02 से 08 अगस्त 2019 तक Sanatan Dharma Temple, 6219 Monk (Corner Street is Jolicoeur), Montreal, Quebec H4E3H8, Canada में श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है।
श्रीमद्भागवत कथा के सप्तम दिवस पर महाराज श्री ने श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की सुंदर कथा श्रोताओं को श्रवण कराई।
भागवत के सप्तम दिवस की शुरूआत भागवत आरती और विश्व शांति के लिए प्रार्थना के साथ की गई।
पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा की शुरुआत करते हुए बताया कि तिलक, चोटी, तुलसी, कलावा ये हिन्दुओं की पहचान है, ये सभी हमारे संस्कार है। इन सभी चीजों से हमारे विचार विवेकशील होते है इसलिए हमें अपने जीवन में इन सभी को अवश्य धारण करना चाहिए।
महाराज श्री ने बताया की हमें अपने जीवन में कभी भी अपने धर्म को नहीं भूलना चाहिए। आप चाहे जहाँ कही भी रह रहें हो अपने धर्म और संस्कारों को कभी न भूले बल्कि उन्हें आगे बढ़ाने के लिए कार्य करें वही संस्कार अपने बच्चों में डाले ताकि आपके इस दुनिया से जाने के बाद आपके बच्चे धार्मिक कार्य करें नहीं तो आप जीवन में कभी खुश नहीं रह पाएंगे।
महाराज श्री ने बताया की ब्रम्हांड के तीनो लोकों में हमारे जीवन में गुरु से बढ़कर कोई और नहीं है। क्यूंकि गुरु के बिना ज्ञान नहीं है और इस विश्व के जगत गुरु मेरे ठाकुर श्री कृष्ण है, जो कुछ भी करते है वही करते है उनकी इच्छा के बिना डाली से एक पत्ता इधर से उधर नहीं हो सकता।
महाराज श्री ने बताया की श्रीमद भागवत कथा का ये सप्ताह जिसमे कहने को सिर्फ सात दिन होतें है लेकिन ये सात दिन हमारे सात जन्मो के बराबर होते है, जो भी इन सात दिनों को जी लेता है वो भौ बंधन के सभी बंधनो से मुक्त हो जाता है क्यूंकि मात्र ये सात दिन हमें हर बंधन से मुक्त कराने की क्षमता रखते है, इन सात दिनों में हम परमात्मा से मिलन का सफर तय कर लेते है। ये सात दिन नहीं बल्कि मानो सात युग है जिसके जीवन में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का पदार्पण हो जाए वो युग युगान्तर तक याद रखें जाते है। इसलिए ये सात दिन परमात्मा की तरह ले जाने के लिए पर्याप्त है।
पूज्य देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा का वृतांत सुनाते हुए कहा कि रुकमणी जी ने श्रीकृष्ण से प्रेम विवाह किया। भगवान ने 16 हजार 100 विवाह किए हैं लेकिन 8 विवाह अलग अलग हुए। ये 8 पटरानियां साधारण नहीं हैं लक्ष्मी जी बनी हैं रूकमणी, पार्वती जी आधे अंश से बनी हैं जामवंती और बाके आधे अंश से बनी हैं महामाया, तुलसी बनी हैं लक्ष्मणा, यमुना बनी हैं सूर्य की पूत्री कालिंदी, लज्जा बनी हैं भद्रा, गंगा बनी हैं मित्रव्रिंदा, सावित्री जी बनी हैं सत्या और पृथ्वी बनी हैं सत्यभामा। ये सांसारिक विवाह नहीं है ये पूरी प्रकृति के साथ ठाकुर जी ने विवाह किया है।
महाराज श्री ने आगे कहा कि भगवान ने 16100 विवाह इसलिए नहीं किए की उन्हे बहुत सारी पत्नियां चाहिए थी। उन्होंने इतने विवाह इसलिए किए क्योंकि उन स्त्रियों को जरूरत थी। भौमासुर नामक राक्षस ने 16 हज़ार 100 कन्याओं को बंदी बना रखा था। नरकासुर का वध करके श्री कृष्ण ने कन्याओं को बंधन मुक्त करवाया। इन कन्याओं ने श्री कृष्ण से कहा की समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा अतः आप ही कोई उपाय करें। समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा के सहयोग से श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया। इस कारण भगवान ने १६१०० रूप बनाकर सबके साथ एक मुहूर्त में एक साथ विवाह किया था। कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने इतने विवाह किये। भगवान ने कामनावश विवाह नहीं किया था, करुणावश किया था। भगवान कहते हैं जिसको कोई नहीं अपनाता अगर वो मेरी शरण में आये तो मैं उसे अपना लेता हूँ।
पूज्य देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा का क्रम सुनाते हुए श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कथा श्रोताओं के श्रवण कराई। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण था। वह और उसका परिवार अत्यंत गरीबी तथा दुर्दशा का जीवन व्यतीत कर रहा था। कई-कई दिनों तक उसे बहुत थोड़ा खाकर ही गुजारा करना पड़ता था। कई बार तो उसे भूखे पेट भी सोना पड़ता था। सुदामा अपने तथा अपने परिवार की दुर्दशा के लिए स्वयं को दोषी मानता था। उसके मन में कई बार आत्महत्या करने का भी विचार आया। दुखी मन से वह कई बार अपनी पत्नी से भी अपने विचार व्यक्त किया करता था। उसकी पत्नी उसे दिलासा देती रहती थी। उसने सुदामा को एक बार अपने परम मित्र श्रीकृष्ण, जो उस समय द्वारका के राजा हुआ करते थे, की याद दिलाई। बचपन में सुदामा तथा श्रीकृष्ण एक साथ रहते थे तथा सांदीपन मुनि के आश्रम में दोनों ने एक साथ शिक्षा ग्रहण की थी। सुदामा की पत्नी ने सुदामा को उनके पास जाने का आग्रह किया और कहा, “श्रीकृष्ण बहुत दयावान हैं, इसलिए वे हमारी सहायता अवश्य करेंगे।’ सुदामा ने संकोच-भरे स्वर में कहा, “श्रीकृष्ण एक पराक्रमी राजा हैं और मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। मैं कैसे उनके पास जाकर सहायता मांग सकता हूं ?’ उसकी पत्नी ने तुरंत उत्तर दिया, “तो क्या हुआ ? मित्रता में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होता। आप उनसे अवश्य सहायता मांगें। मुझसे बच्चों की भूख-प्यास नहीं देखी जाती।’ अंततः सुदामा श्रीकृष्ण के पास जाने को राजी हो गया। उसकी पत्नी पड़ोसियों से थोड़े-से चावल मांगकर ले आई तथा सुदामा को वे चावल अपने मित्र को भेंट करने के लिए दे दिए। सुदामा द्वारका के लिए रवाना हो गया। महल के द्वार पर पहुंचने पर वहां के पहरेदार ने सुदामा को महल के अंदर जाने से रोक दिया। सुदामा ने कहा कि वह वहां के राजा श्रीकृष्ण का बचपन का मित्र है तथा वह उनके दर्शन किए बिना वहां से नहीं जाएगा। श्रीकृष्ण के कानों तक भी यह बात पहुंची। उन्होंने जैसे ही सुदामा का नाम सुना, उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वे नंगे पांव ही सुदामा से भेंट करने के लिए दौड़ पड़े। दोनों ने एक-दूसरे को गले से लगा लिया तथा दोनों के नेत्रों से खुशी के आंसू निकल पड़े। श्रीकृष्ण सुदामा को आदर-सत्कार के साथ महल के अंदर ले गए। उन्होंने स्वयं सुदामा के मैले पैरों को धोया। उन्हें अपने ही सिंहासन पर बैठाया। श्रीकृष्ण की पत्नियां भी उन दोनों के आदर-सत्कार में लगी रहीं। दोनों मित्रों ने एक साथ भोजन किया तथा आश्रम में बिताए अपने बचपन के दिनों को याद किया। भोजन करते समय जब श्रीकृष्ण ने सुदामा से अपने लिए लाए गए उपहार के बारे में पूछा तो सुदामा लज्जित हो गया तथा अपनी मैली-सी पोटली में रखे चावलों को निकालने में संकोच करने लगा। परंतु श्रीकृष्ण ने वह पोटली सुदामा के हाथों से छीन ली तथा उन चावलों को बड़े चाव से खाने लगे। भोजन के उपरांत श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपने ही मुलायम बिस्तर पर सुलाया तथा खुद वहां बैठकर सुदामा के पैर तब तक दबाते रहे जब तक कि उसे नींद नहीं आ गई। कुछ दिन वहीं ठहर कर सुदामा ने कृष्ण से विदा होने की आज्ञा ली। श्रीकृष्ण ने अपने परिवारजनों के साथ सुदामा को प्रेममय विदाई दी। इस दौरान सुदामा अपने मित्र को द्वारका आने का सही कारण न बता सका तथा वह बिना अपनी समस्या निवारण के ही वापस अपने घर को लौट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों को क्या जवाब देगा, जो उसका बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। सुदामा के सामने अपने परिवारीजनों के उदास चेहरे बार-बार आ रहे थे। परंतु इस बीच श्रीकृष्ण अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे। सुदामा की टूटी झोंपड़ी एक सुंदर एवं विशाल महल में बदल गई थी। उसकी पत्नी तथा बच्चे सुंदर वस्त्र तथा आभूषण धारण किए हुए उसके स्वागत के लिए खड़े थे। श्रीकृष्ण की कृपा से ही वे धनवान बन गए थे। सुदामा को श्रीकृष्ण से किसी प्रकार की सहायता न ले पाने का मलाल भी नहीं रहा। वास्तव में श्रीकृष्ण सुदामा के एक सच्चे मित्र साबित हुए थे, जिन्होंने गरीब सुदामा की बुरे वक्त में सहायता की।
।। राधे-राधे बोलना पड़ेगा ।।






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